कमरा बंद रखते हो पर चाबी खोने का गम नही
कोई झाँक कर देखे भी तो क्या देखे टूटी खिड़की से ,
अंधेरेसे गीली हुई जमीन और दीवारों पर नम कहीं
रौशन लकीरें तरस गयी है भीतर आने कों
खिड़की को भी साँस लेने दो कभी यूँही
ये सोई हुई यादें ताजा होने का डर है तुम्हें
और यादोंकों छुपना है सोये अन्धेरोमे कहीं.
अब यादोंको उजाला मिल भी जाए तो क्या हो
ये रोशन यादे जुगनू बनके उड़ने वाली नहीं
दीवारोंपे रंग भी लग जाए तो क्या हो
कमरे में बसी तस्वीर हटने वाली नही
--------------आदित्य देवधर
1 comment:
very nice.... :).... meaningful
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