मंजिलें लुटती गयीं और
फासलें भी बढ गए
चुटकीसी उम्मीद लेके शाख से पत्ते गिरे और
आँख से मोती गिरे
कुछ वहा मिट्टी बने और
कुछ बहारे बन गए
सह लिए हैं जुल्म इतने
बस तुम्हारी चाह में
दर्द से ऐसे जुड़े
हम-दर्द तेरे बन गए
ये कहाँकी बाढ़ है
जो ले न जाए कुछ कहीं
तेज ऐसी धार में बस
गम पुराने धुल गए
---- आदित्य देवधर
2 comments:
chaan!! Hindit pan titkich sunder!!! keep up.
Waw...kya baat hai....sahich
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