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Monday, March 28, 2011

उम्मीद

मंजिलें लुटती गयीं और
फासलें भी बढ गए
चुटकीसी उम्मीद लेके
हौसलें फिर बन गए

शाख से पत्ते गिरे और
आँख से मोती गिरे
कुछ वहा मिट्टी बने और
कुछ बहारे बन गए

सह लिए हैं जुल्म इतने
बस तुम्हारी चाह में
दर्द से ऐसे जुड़े
हम-दर्द तेरे बन गए

ये कहाँकी बाढ़ है
जो ले न जाए कुछ कहीं
तेज ऐसी धार में बस
गम पुराने धुल गए

---- आदित्य देवधर 

2 comments:

manjeet said...

chaan!! Hindit pan titkich sunder!!! keep up.

Dinesh Wadekar said...

Waw...kya baat hai....sahich